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Thursday, June 15, 2017

पीठ में है तकलीफ़ तो ये नुस्ख़े आज़माएं

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पीठ की तकलीफ़ की समस्या को दूर करने के लिए कुछ उपाय निम्नलिखित हैं-
1.अगर आप कामकाजी हैं तो डेस्क से नियमित समय अंतराल पर उठते रहें. हो सके तो इसके लिए अलार्म लगा लें. स्टैंडिंग डेस्क पर काम करें. अलग-अलग तरह की कुर्सियों का इस्तेमाल करें.
2.योग और मेडिटेशन करें, ये संभव नहीं हो तो वॉक ही किया करें.
3.अगर आप किसी एक्टिविटी को पसंद करते हैं तो उसे लंबे समय तक करें.
4.कोशिश करें कि एक्टिव रहें और इसके लिए नियमित तौर पर वॉक करें.

रोज़ाना ऐस्प्रिन लेने वाले

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हर्ट अटैक और स्ट्रोक के बाद रोज़ाना ऐस्प्रिन लेने वाले 75 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों के लिए ये बहुत ख़तरनाक हो सकता है.
लैंसेट में प्रकाशित शोध के मुताबिक इससे पेट में काफ़ी रक्तस्राव हो सकता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक रक्तस्राव से बचाव के लिए बुज़ुर्गों को पेट की सुरक्षा करने वाले पीपीआई पिल्स लेने चाहिए.
इन वैज्ञानिकों के मुताबिक ऐस्प्रिन लेने से हर्ट अटैक की आशंका कम होती है, ऐसे में ऐस्प्रिन का सेवन अचानक से बंद किया जाना भी ख़तरनाक हो सकता है.
वैज्ञानिकों के मुताबिक ऐस्प्रिन सेवन करने वाले लोगों को दवा में किसी बदलाव से पहले चिकित्सकों से सलाह लेनी चाहिए. आम तौर पर डॉक्टर किसी भी शख़्स को हर्ट अटैक आने के बाद उन्हें लाइफ़ टाइम रोज़ाना ऐस्प्रिन लेने की सलाह देते हैं.
लेकिन शोधकर्ताओं के मुताबिक ऐस्प्रिन से पेट में रक्तस्राव होने की आशंका बढ़ती है. हालांकि 75 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों में अब तक के दूसरे शोधों के मुताबिक रक्तस्राव होने का ख़तरा कम होने का दावा किया जाता रहा है.
ये शोध ब्रिटेन के ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी का है. इस शोध अध्ययन में 3,166 मरीजों को शामिल किया गया. ये वो लोग हैं जिन्हें हर्ट अटैक आ चुका था और डॉक्टरों ने इन्हें ऐस्प्रिन लेने या रक्त को पतला करने वाले दूसरी दवाइयां लेने को कहा हुआ था.
इस शोध में देखा गया कि 65 साल से कम उम्र के प्रति 200 लोगों में एक आदमी के पेट में रक्तस्राव की आशंका थी, वहीं 75 से 84 साल के लोगों के लिए प्रति 200 लोगों में तीन आदमी में रक्तस्राव की आशंका देखी गई.
अध्ययन के मुख्य शोधकर्ता प्रोफ़ेसर पीटर रॉचवेल कहते हैं, "हमारे नए अध्ययन के मुताबिक 75 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों में ऐस्प्रिन सेवन से ख़तरा ज़्यादा होता है."
हीं शेफ़ील्ड यूनिवर्सिटी के हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. टिम चिको बताते हैं कि ये महत्वपूर्ण अध्ययन है. हालांकि टिम के मुताबिक ऐस्प्रिन कईयों के लिए ख़तरनाक नहीं भी होता है.
ब्रिटेन में मौजूदा प्रावधानों के मुताबिक ज़्यादा ख़तरे की चपेट में आने वाले लोगों को ऐस्प्रिन के साथ साथ पीपीआई पिल्स दिया जा रहा है.

कलाम के सम्मान में नासा ने बैक्टीरिया का नाम रखा 'कलामी'

लॉस एंजेलिस 
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भारत के लिए एक अच्छी खबर है। नासा के वैज्ञानिकों ने उनके द्वारा खोजे गए एक नए जीव को भारत के पूर्व राष्ट्रपति और अंतरिक्ष वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम का नाम दिया है। अभी तक यह नया जीव (जीवाणु की एक किस्म) सिर्फ अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) में ही मिलता था। यह पृथ्वी पर नहीं पाया जाता था। 

नासा की प्रयोगशाला ने अंतरग्रही यात्रा पर काम करते हुए अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के फिल्टरों में इस नए जीवाणु को खोजा और भारत के पूर्व राष्ट्रपति कलाम के सम्मान में इसे सोलीबैकिलस कलामी नाम दिया। 1963 में कलाम ने शुरुआती ट्रेनिंग नासा में ली थी। इसके बाद उन्होंने केरल के थुंबा में मछुआरों के गांव में भारत का पहला रॉकेट प्रक्षेपण केंद्र स्थापित किया था।

मुंह को काटे बिना रोबोट की सहायता से ट्यूमर निकालना मुमकिन

मुंह को काटे बिना रोबोट की सहायता से ट्यूमर निकालना मुमकिन
मुंह को काटे बिना रोबोट की सहायता से ट्यूमर निकालना मुमकिन (प्रतीकात्मक फोटो)
नयी दिल्ली: अगर कोई व्यक्ति मुंह, गले या गर्दन के कैंसर से जूझ रहा है और कीमोथेरेपी और रेडिएशन से उपचार कराना नहीं चाहता तो उनके लिए भारत में भी रोबोटिक सर्जरी की सहायता से ट्यूमर निकालने की नई तकनीक मौजूद है और डॉक्टरों के मुताबिक यह अपेक्षाकृत कम दर्द वाली है.
इस तकनीक से मुंह गले या गर्दन के कैंसर से पीड़ित किसी व्यक्ति के मुंह को काटा नहीं जाता बल्कि रोबोट की सहायता से ट्यूमर को निकाला जाता है.
दरअसल, इस तकनीक में एक रोबोट और उसकी कई बाहें होती है जिसमें से एक पर कैमरा लगा होता है. इसके जरिए मुंह, गले और गर्दन के उस हिस्से तक पहुंचा जा सकता है जहां ट्यूमर है और वहां तक डॉक्टर के हाथ नहीं पहुंच पाते. रोबोट की सहायता से ट्यूमर को काटकर निकाल लिया जाता है तथा मरीज के मुंह एवं गर्दन में चीरा नहीं लगाया जाता है.
इस तकनीक के माध्यम से फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट में 500 ऑपरेशन किए गए हैं और अस्पताल ने 57 लोगों पर एक अध्ययन भी किया है जो ढाई साल की अवधि में किया गया है. डॉक्टर का कहना है कि 57 में से 43 मरीज कैंसर से मुक्त हो गए.
अस्पताल में ‘नेक एंड थ्रॉक्स सर्जिकल ऑन्कोलॉजी’के निदेशक डॉ सुरेंद्र डबास ने कहा कि यह तकनीक अपेक्षाकृत आसान है. जहां कीमोथेरेपी और रेडिएशन में सात हफ्ते का वक्त लगता है वहीं इसमें रोगी को ठीक होने में सात दिन लगते हैं.
उन्होंने कहा, ‘इसमें रोबोट की बाहों के माध्यम से मुंह के अंदर उन हिस्सों में पहुंचा जाता है जहां डॉक्टर के हाथ नहीं पहुंच पाते. इसकी एक बाह में कैमरा लगा होता है और डॉक्टर उसमें देखकर थ्री डी के माध्यम से रोबोट की सहायता से ट्यूमर को काटकर निकाल देता है.’उन्होंने कहा कि इस तकनीक से ऑपरेशन करने में 20 मिनट का वक्त लगता है.
डॉ डबास ने कहा कि इसमें रोगी को चार-पांच दिन में अस्पताल से छुट्टी मिल जाती है. इसमें कम दर्द होता है. कम खून बहता है. संक्रमण का भी खतरा कम होता है और रोगी जल्दी अपनी सामान्य गतिविधियां शुरू कर सकता है. उन्होंने कहा कि इस तकनीक के माध्यम से पीड़ित की आवाज भी बेहतर रहती है और खाने में भी उसे तकलीफ नहीं होती.
उन्होंने कहा कि इस अध्ययन में शुरूआती कैंसर से पीड़ित 57 मरीजों को शामिल किया गया है जिनका मार्च 2013 से अक्तूबर 2015 के बीच मुंह, गले और गर्दन में से ट्यूमर निकाला गया था. इसमें से 43 फीसदी मरीज रोगमुक्त हो गए.
उन्होंने कहा कि अगर कैंसर को वापस आना होता है तो वो दो साल में आ जाता है लेकिन उनका अध्ययन ढाई साल का है उन्होंने कहा कि 57 मरीजों में 48 पुरूष थे और नौ महिलाएं थीं. उनकी औसत आयु 59.4 वर्ष थी.

भारतीय ने खोजा खारे पानी को पीने योग्य बनाने का तरीका

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सैन फ्रांसिस्को। अमेरिका में भारतीय मूल के छात्र ने खारे पानी को पीने योग्य जल में तब्दील  करने का एक सस्ता और आसान तरीका खोज निकाला है। इस छात्र के शोध ने कई बड़ी  तकनीकी कंपनियों और विश्वविद्यालयों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है।  

कारम्चेडू ने कहा कि प्रत्येक 8 में से 1 व्यक्ति के पास पीने के लिए स्वच्छ जल की व्यवस्था  नहीं है। यह एक ऐसी चीज है जिसमें जल्द सुधार की जरूरत है। उन्होंने इस समस्या का  समाधान करने का मन बना लिया है। उच्च बहुलक के साथ खारे पानी पर प्रयोग करके इस  किशोर ने समुद्री जल से नमक हटाकर पीने योग्य जल तैयार करने का सस्ता तरीका खोज  निकाला है। 

ऐसी 'मशीन' जो सूंघकर बता देती है बीमारी का पता

कैलिफोर्निया। पुराने जमाने में नाड़ी शास्त्र के ज्ञाता आदमी की नब्ज पकड़कर यह पता लगा लेते थे कि व्यक्ति किस बीमारी से पीडि़त है, लेकिन वैज्ञानिक अब ऐसी मशीन बनाने का प्रयास कर रहे हैं जो कि बीमार को सूंघकर  ही बता देगी कि उसके कौन सा रोग है। विदित हो कि जल्द ही ऐसी मशीन का निर्माण होने वाला है। इस मशीन के आविष्कार में जुटे वैज्ञानिकों का कहना है कि यह मशीन आसानी से सांस, ब्लड और यूरीन जनित रोगों को पहचान  लेगी।   

हम सभी की एक अद्वितीय गंध होती है जो हजारों कार्बनिक यौगिकों से मिलकर बनती है। इस महक से हमारी उम्र, जैनेटिक, लाइफस्टाइल, होमटाउन और यहां तक कि हमारे मेटाबॉलिक प्रोसेस के बारे में भी पता चलता है। विदित हो कि प्राचीन यूनानी और चीनी चिकित्सक रोग को पहचानने के लिए मरीज की गंध का इस्तेमाल किया करते थे। 

अब इसी पुरानी तकनीक को इस्तेमाल करते हुए वैज्ञानिक फिर से प्रयोग में लाने तैयारी में हैं। इस तकनीकी के तहत त्वचा और सांस की गंध से बीमारी का पता लगाया जा सकेगा। उदाहरण के तौर पर वैज्ञानिकों का कहना है कि मधुमेह रोगियों की सांस सड़े हुए सेब जैसी आती है। टाइफाइड रोगियों की त्वचा बेकिंग ब्रैड जैसी गंध देती हैं।  

वैसे तो हर डॉक्टर भी कुछ बीमारियों को किसी हद तक सूंघ सकता है, लेकिन यह इस पर निर्भर करता है कि उसकी नाक कितनी संवेदनशील है और वह सूंघ कर बीमारियां पहचानने का कितना अनुभवी है। इस वजह से खोजकर्ता कम एक ऐसे सेंसर पर काम कर रहे हैं जो रोग को पहचान ले। 

मोटापा कम करने का ये तरीका हो सकता है ख़तरनाक

मोटापा कम करने का ये तरीका हो सकता है ख़तरनाक मोटापा कम करने या दूसरे शब्दों में कहें तो शरीर से चर्बी घटाने के लिए की जाने वाली सर...